रविवार, 21 दिसंबर 2008

निरक्षर मानव

पेड़ के ओखल में कठ्फोड़्वे का घर था
वन पेड़ों से बेजोड़ थाबीहड़ जंगल,
लकड़ियों का खजाना
जैसेजीव जन्तुओं से नहीं
इसे खुदगर्ज़ आदमियों से डर था
वहीं हाथों में कुल्हाड़ी लिए कुछ लकड़ी चोरों का भी दल था
कठ्फोड़्वे और लोगों को जंगल सेबराबरी का आसरा था
पहली कुल्हाड़ी की ठेस
वृक्ष व कठफोड़वे को एक साथ हिला गई
तब कठफोड़वे की निगाह अपनी प्रहारी चोंच के प्रहार पर गई
तने को आश्वासित कर वो उन लोगो पे जा टूटा
अपने आसरे का सिला एक कठफोड़वे ने ऐसे दिया
अब वृक्ष की हर शाखा भी झूम उठी
तेज पवन के झौंकों से
जैसे निकली ध्वनि,
शुक्रिया कह उठीये पेड़ एक विद्यालय
के प्रांगण में था
लोग जहां के अशिक्षित पर
वृक्ष शिक्षा की तहज़ीब में था
परोपकारिता और शिष्ट्ता का पाठ
एक वृक्ष व कठफोड़वा पढ़ गया
अफसोस इतना ही रहा
कि इन्सानियत का मानव
इससे क्यों निरक्षर रह गया ।

कोई टिप्पणी नहीं: