रविवार, 21 दिसंबर 2008

स्वप्न यूँ मरते नहीं हैं

हो गया इतिहास लोहित
यदि हमारे ही लहू सेहै खड़ा विकराल अरि द्रुत छीनता विश्रान्ति भू सेबादलों की हूक से पर्वत-हृदय डरते नहीं हैं स्वप्न यूँ मरते नहीं हैं तीन रंगों से बनी जोहै वही तस्वीर प्यासीभारती के चक्षु कोरों पर उगी कोई उदासी किंतु ये मोती पिघलकरधीरता हरते नहीं हैं स्वप्न यूँ मरते नहीं हैं यह नहीं दावा किसोते पर्वतों से चल पड़ेंगेंया कि सदियों से सुषुप्त ललाट पर कुछ बल पड़ेंगेंपर अवनि के पार्थ यूँ गाँडीव को धरते नहीं हैंस्वप्न यूँ मरते नहीं हैंहै कठिन चलना अगर कठिनाइयों के पत्थरो परविश्व हेतु उठा हलाहल को लगाना निज- अधर पर शंकरो पर विषधरो के विष असर करते नहीं हैं स्वप्न यूँ मरते नहीं हैं

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